ETF Investing

ETF कैसे काम करते हैं? ETF एनालिसिस

How ETFs Work

1. ETF कैसे काम करते हैं? ETF एनालिसिस (How ETF Works? A Deep Analysis)

एक्सचेंज ट्रेडेड फंड्स (ETFs) ने भारतीय निवेश जगत में क्रांति ला दी है। वे शेयरों की तरह स्टॉक एक्सचेंज पर खरीदे-बेचे जाते हैं, लेकिन म्यूचुअल फंड्स की तरह विविधता (Diversification) प्रदान करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये ETF आखिर कैसे काम करते हैं? यह जादू नहीं, बल्कि एक सुव्यवस्थित और पारदर्शी प्रक्रिया है, जिसकी रीढ़ है क्रिएशन/रिडेंप्शन (Creation/Redemption) प्रक्रिया और मार्केट मेकर्स (Market Makers) की महत्वपूर्ण भूमिका। आइए, इन रहस्यों को समझते हैं।

2. ETF की बुनियाद: एक सरल समझ

सोचिए, ETF एक विशाल टोकरी (Basket) है। यह टोकरी किसी विशेष इंडेक्स (जैसे Nifty 50), सेक्टर (जैसे बैंकिंग), कमोडिटी (जैसे सोना), या थीम (जैसे ESG) को ट्रैक करने वाले कई अलग-अलग शेयरों, बॉन्ड्स या अन्य एसेट्स से भरी होती है। जब आप एक ETF का एक यूनिट (Unit) खरीदते हैं, तो आप वास्तव में उस पूरी टोकरी में एक छोटा-सा हिस्सा खरीद रहे होते हैं। यही इसकी विविधता की खूबी है।

3. जादुई मशीनरी: क्रिएशन और रिडेंप्शन प्रक्रिया (ETF Creation and Redemption Process)

ETF को साधारण शेयरों से अलग और कुशल बनाने वाली यही मुख्य प्रक्रिया है। यह ETF के शेयरों की सप्लाई को नियंत्रित करती है और यह सुनिश्चित करती है कि ETF का शेयर मूल्य (Market Price), उसके अंदर मौजूद एसेट्स के कुल मूल्य (Net Asset Value – NAV) के करीब बना रहे।

  1. क्रिएशन (Creation) – ETF यूनिट्स बनाना:

    • अहम खिलाड़ी: अधिकृत प्रतिभागी (Authorized Participants – APs)। ये आमतौर पर बड़े फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशंस या मार्केट मेकर्स होते हैं।

    • प्रक्रिया: मान लीजिए, एक नया ETF लॉन्च हुआ है या मौजूदा ETF की मांग बढ़ रही है।

    • APs, ETF को ट्रैक करने वाले इंडेक्स (जैसे Nifty 50) में शामिल सभी शेयरों को ठीक उसी अनुपात में खरीदता है जैसा ETF में होना चाहिए। इसे “क्रिएशन बास्केट (Creation Basket)” कहते हैं।

    • AP यह शेयरों की टोकरी ETF प्रबंधक (Fund Manager) को सौंपता है।

    • बदले में, ETF प्रबंधक AP को ETF के नए यूनिट्स (Units) का एक बड़ा ब्लॉक (जैसे 50,000 यूनिट्स) देता है। इसे “क्रिएशन यूनिट (Creation Unit)” कहते हैं।

    • नतीजा: ETF में नए यूनिट्स जुड़ गए। AP अब इन यूनिट्स को स्टॉक एक्सचेंज पर रिटेल निवेशकों को बेच सकता है।

  2. रिडेंप्शन (Redemption) – ETF यूनिट्स वापस लेना:

    • प्रक्रिया: अगर ETF यूनिट्स की मांग कम हो जाती है या निवेशक बेचना चाहते हैं।

    • AP स्टॉक एक्सचेंज से ETF के यूनिट्स का एक बड़ा ब्लॉक (पूरा क्रिएशन यूनिट, जैसे 50,000 यूनिट्स) खरीदता है।

    • AP यह ETF यूनिट्स का ब्लॉक फंड मैनेजर को वापस लौटाता है।

    • बदले में, फंड मैनेजर AP को ETF बास्केट में मौजूद शेयरों की वही टोकरी (“रिडेंप्शन बास्केट – Redemption Basket”) लौटाता है जो उसने क्रिएशन के समय दी थी।

    • नतीजा: ETF के यूनिट्स बाजार से वापस ले लिए गए। AP अब उन शेयरों को बाजार में बेच सकता है।

4. ETF क्रिएशन/रिडेंप्शन के फायदे:

  • कीमतों में स्थिरता (Price Stability): यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि ETF का मार्केट प्राइस, उसके NAV से ज्यादा भटके नहीं। अगर प्राइस NAV से ज्यादा हो जाए (प्रीमियम), तो APs क्रिएशन करके ज्यादा यूनिट्स बना सकते हैं और बेच सकते हैं, जिससे प्राइस नीचे आता है। अगर प्राइस NAV से कम हो जाए (डिस्काउंट), तो APs डिस्काउंट पर यूनिट्स खरीदकर रिडेंप्शन कर सकते हैं (शेयर वापस लेकर), जिससे प्राइस ऊपर जाता है।

  • दक्षता (Efficiency): फंड मैनेजर को रोजाना निवेशकों से सीधे पैसे लेने या देनने की जरूरत नहीं पड़ती। वह सिर्फ APs के साथ एसेट्स (शेयरों) का आदान-प्रदान करता है। इससे लागत कम होती है।

  • टैक्स दक्षता (Tax Efficiency): क्रिएशन/रिडेंप्शन में एसेट्स का ट्रांसफर होता है, न कि उनकी बिक्री। इससे फंड के अंदर पूंजीगत लाभ (Capital Gains) कम होते हैं, जिसका लाभ निवेशकों को मिलता है।

5. बाजार के रक्षक: मार्केट मेकर्स की भूमिका (Role of Market Makers)

मार्केट मेकर्स वे वित्तीय संस्थान या फर्में हैं जो ETF ट्रेडिंग को चलाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अक्सर, APs ही मार्केट मेकर्स भी होते हैं। उनका काम:

  1. तरलता प्रदान करना (Provide Liquidity): ये लगातार ETF के लिए बोली (Bid Price – खरीदने की कीमत) और प्रस्ताव (Ask Price – बेचने की कीमत) दोनों देते रहते हैं। इसका मतलब है कि जब भी आप ETF खरीदना या बेचना चाहें, आपको आसानी से खरीदार या विक्रेता मिल जाता है। यही तरलता (Liquidity) ETF को आकर्षक बनाती है।

  2. स्प्रेड को कम रखना (Tighten the Bid-Ask Spread): बोली और प्रस्ताव कीमत के बीच के अंतर को “स्प्रेड (Spread)” कहते हैं। मार्केट मेकर्स का लक्ष्य इस स्प्रेड को जितना हो सके उतना कम रखना होता है। कम स्प्रेड का मतलब है निवेशक के लिए कम ट्रेडिंग लागत।

  3. कीमतों को NAV के करीब बनाए रखना (Price Alignment with NAV): मार्केट मेकर्स आर्बिट्राज (Arbitrage) के अवसरों का फायदा उठाते हैं। अगर ETF का प्राइस NAV से ज्यादा हो जाता है (प्रीमियम), तो वे क्रिएशन प्रक्रिया के जरिए नए यूनिट्स बनाकर एक्सचेंज पर बेचते हैं, जिससे प्राइस नीचे आता है। अगर प्राइस NAV से कम हो जाता है (डिस्काउंट), तो वे एक्सचेंज से सस्ते में यूनिट्स खरीदकर रिडेंप्शन के जरिए शेयर वापस ले लेते हैं, जिससे प्राइस बढ़ता है। इस तरह वे प्राइस को NAV के करीब बनाए रखते हैं।

 6. फिजिकल ETF Vs सिंथेटिक ETF (Physical vs. Synthetic ETFs)

ETF अपने अंडरलाइंग इंडेक्स को ट्रैक करने के लिए दो मुख्य तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं:

  1. फिजिकल ETF (Physical ETFs):

    • कैसे काम करता है: यह सीधा और स्पष्ट तरीका है। फंड मैनेजर वास्तव में उन शेयरों या बॉन्ड्स को खरीदता है जो इंडेक्स में शामिल हैं। जैसे Nifty 50 ETF में Nifty 50 के सभी 50 शेयर्स उसी भार (Weight) में खरीदे जाते हैं।

    • पारदर्शिता (Transparency): आप जानते हैं कि आपका पैसा कहां लगा है। होल्डिंग्स आमतौर पर रोज या हफ्ते में अपडेट होती हैं।

    • जोखिम (Risk): मुख्य जोखिम इंडेक्स का ट्रैकिंग एरर (Tracking Error – ETF के रिटर्न और इंडेक्स के रिटर्न में अंतर) और अंडरलाइंग एसेट्स के मूल्य में उतार-चढ़ाव (Market Risk) है।

    • उदाहरण: भारत में ज्यादातर इक्विटी और बॉन्ड ETF (जैसे Nippon India Nifty 50 ETF, ICICI Prudential Sensex ETF) फिजिकल ही हैं।

  2. सिंथेटिक ETF (Synthetic ETFs):

    • कैसे काम करता है: यहां थोड़ी जटिलता आती है। फंड मैनेजर सीधे इंडेक्स के शेयर नहीं खरीदता। इसके बजाय, वह एक “स्वैप समझौता (Swap Agreement)” करता है, आमतौर पर एक बड़े बैंक (जिसे स्वैप काउंटरपार्टी – Swap Counterparty कहते हैं) के साथ।

    • स्वैप का मतलब: ETF फंड काउंटरपार्टी को एक अलग तरह के एसेट्स (जैसे कुछ शेयर, बॉन्ड्स या कैश) की टोकरी देता है (जिसे कोलैटरल – Collateral कह सकते हैं)। बदले में, काउंटरपार्टी ETF को वादा करता है कि वह उसे इंडेक्स के जितना रिटर्न होता है, उतना रिटर्न देगा (या देगी)। ETF का रिटर्न पूरी तरह इस स्वैप समझौते पर निर्भर करता है।

    • पारदर्शिता: कम पारदर्शी। आपको पता नहीं होता कि कोलैटरल क्या है और स्वैप काउंटरपार्टी कौन है (हालांकि रेगुलेशन के तहत कुछ जानकारी देनी पड़ती है)।

    • जोखिम:

      • काउंटरपार्टी जोखिम (Counterparty Risk): अगर स्वैप काउंटरपार्टी (बैंक) डिफॉल्ट कर जाता है या दिवालिया हो जाता है, तो ETF को अपना वादा किया हुआ रिटर्न नहीं मिल सकता। कोलैटरल इस जोखिम को कम करने में मदद करता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं करता।

      • ट्रैकिंग एरर: स्वैप की लागत और कोलैटरल के रिटर्न के कारण ट्रैकिंग एरर अलग तरह से हो सकता है।

      • समझने में जटिलता।

    • उपयोग: सिंथेटिक ETF का इस्तेमाल अक्सर उन जगहों पर होता है जहां फिजिकल तरीके से इंडेक्स ट्रैक करना मुश्किल या महंगा होता है, जैसे कुछ इंटरनेशनल मार्केट्स, कमोडिटीज या कुछ कॉम्प्लेक्स स्ट्रैटेजीज। भारत में ये कम आम हैं, लेकिन मौजूद हैं (विशेषकर कुछ इंटरनेशनल एक्सपोजर वाले)।

7. फिजिकल ETF Vs सिंथेटिक ETF की तुलना

फीचरफिजिकल ETFसिंथेटिक ETF
इंडेक्स ट्रैकिंगसीधे शेयर/बॉन्ड खरीदकरस्वैप समझौते (Swap Agreement) के जरिए
पारदर्शिताउच्च (होल्डिंग्स दिखती हैं)कम (कोलैटरल और काउंटरपार्टी का जोखिम)
मुख्य जोखिममार्केट जोखिम, ट्रैकिंग एररकाउंटरपार्टी जोखिम, मार्केट जोखिम, ट्रैकिंग एरर
लागत संरचनाप्रबंधन शुल्क (Expense Ratio)प्रबंधन शुल्क + स्वैप फीस
जटिलताअपेक्षाकृत सरलअधिक जटिल
भारत में प्रचलनबहुत आम (ज्यादातर ETF)कम आम

Conclusion: समझदारी से चुनें

ETF की काम करने की मशीनरी – क्रिएशन/रिडेंप्शन प्रक्रिया और मार्केट मेकर्स की सक्रिय भूमिका – इन्हें कुशल, कम खर्चीला और तरल बनाती है। यही कारण है कि वे निवेशकों के बीच इतने लोकप्रिय हैं।

फिजिकल ETF सादगी, पारदर्शिता और कम काउंटरपार्टी जोखिम के कारण ज्यादातर निवेशकों के लिए पहली पसंद होते हैं। सिंथेटिक ETF कुछ विशेष मामलों में उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन उनमें मौजूद अतिरिक्त जोखिम (खासकर काउंटरपार्टी जोखिम) को समझना बेहद जरूरी है।

किसी भी ETF में निवेश करने से पहले हमेशा ध्यान रखें:

  • एसेट अंडरलाइंग: यह किस चीज (इंडेक्स, सेक्टर, कमोडिटी) को ट्रैक करता है?

  • ट्रैकिंग पद्धति: फिजिकल है या सिंथेटिक? अगर सिंथेटिक है, तो काउंटरपार्टी कौन है और कोलैटरल क्या है?

  • ट्रैकिंग एरर: यह कितना कुशलता से इंडेक्स को ट्रैक कर पाता है? (पुराने डेटा चेक करें)

  • एक्सपेंस रेशियो: फंड का वार्षिक शुल्क कितना है?

  • लिक्विडिटी: कितनी आसानी से खरीदा-बेचा जा सकता है? (वॉल्यूम और बिड-आस्क स्प्रेड देखें)

ETF की अंदरूनी कार्यप्रणाली को समझकर आप एक जानकार निवेशक बन सकते हैं और अपने वित्तीय लक्ष्यों के लिए सही ETF का चुनाव कर सकते हैं।

अगला लेख पढ़ें: “भारत में टॉप 5 ETF: विभिन्न कैटेगरीज में सबसे अच्छे विकल्प” (Top 5 ETFs in India: Best Choices Across Different Categories) – हम भारतीय बाजार में उपलब्ध इक्विटी, सेक्टोरल, गोल्ड और इंटरनेशनल ETF में से कुछ शीर्ष प्रदर्शन करने वाले और लोकप्रिय विकल्पों पर चर्चा करेंगे।

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